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मन का राक्षस



रात के एक पहर में ,
निस्तब्धता हो भले ही ,
धडकने पर तेज़ हो जाती है .
हर एक हलचल से बेखबर,
मन कि आवाज का राक्षस ,
लेकर भयावना सा रूप ,
बाहर निकल आता है .
भयभीत करता है मुझे ,
हर पल डराता है ,
अपने ही कामों ,
और व्यवहार के लिए ,
कभी मेरा मन मुझे ही ,
धिक्कारता रहता है ,
तो कबी यह दिखाकर ,
सुनहले सपने मेरी,
आँखों में भर देता सुकून,
हर पल बोझिल होती आंखे ,
इस राक्षस से डरती है ,
कभी यह रुलाता है तो ,
कभी बेजा मुस्कान देता है ,
कितना भी दूर भागू ,
अतीत में ला पटकता है ,
मन का यह राक्षस ,
रात के गुजरते ही ,
चमचमाते दिन में ,
न जाने किस खोह में ,
छुप जाता है जाकर यह ,
अगले दिन फिर आने का ,
वादा करके ये निर्मोही .

टिप्पणियाँ

  1. मन का यह राक्षस ,
    रात के गुजरते ही ,
    चमचमाते दिन में ,
    न जाने किस खोह में ,
    छुप जाता है जाकर यह ,
    अगले दिन फिर आने का ,
    वादा करके ये निर्मोही
    रात की निश्त्ब्धता का सुंदर वर्णन , बधाई

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी कविता ने सोचने पर मजबूर कर दिया
    बहुत अच्छा लिखती है आप

    जवाब देंहटाएं
  3. आपकी कविता ने सोचने पर मजबूर कर दिया
    बहुत अच्छा लिखती है आप

    जवाब देंहटाएं
  4. मन कि आवाज का राक्षस
    कौन बच पाया है इस राक्षस से भला ..

    जवाब देंहटाएं
  5. हौसलाफजाई के लिए आप सब का धन्यवाद,एक छोटा सा प्रयास है , उम्मीद है यु ही आप सब का स्नेह और मार्गदर्शन मिलता रहेगा

    जवाब देंहटाएं

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