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मन की भटकन

समय गुजरता जाता है और जिंदगी भी अपने कदमों के निशान छोड़ती हुई आगे बढ़ती है। लोगों की दोस्ती, बाहरी शोर-शराबे और भाग-दौड़ में हम इतना व्यस्त हो जाते हैं कि शायद अपने लिए ही समय नहीं मिलता। फिर किसी दिन कोई याद दिला दे कि आप क्या करते थे, आपके क्या शौक थे, तो मन फिर से उन यादों में लौट जाता है। इसके बावजूद समय किसी के लिए नहीं ठहरता, आगे बढ़ता जाता है, और हम बस केवल याद ही कर सकते हैं। शायद यह मेरी ही नहीं बल्कि हर एक की कहानी हैः कुछ भीड़-भाड़ पर खाली सा, मन मेरा भटकता हर तरफ, किन दिनों की याद और किन दिनों का साथ, कहां से बनती मन की बात। हर ओर एक धुंधलका होता, हर ओर एक वीरानी, कितनी कहानियां मन को टटोलती, कितने ही किस्सों से मन की, होती रहती हरदम बात। दिन-दिन समय है बढ़ता जाता, फिर भी कुछ क्यों समझ न आता, न हारी न जीती हूं मैं, समय का मिला जहां तक साथ।   कुछ किस्सों की नायिका, कुछ की हूं खलनायिका, कितने ही दिन गुजर गए, बनी नहीं कुछ बात। दोस्तों की दोस्ती और, दुश्मनों की दुश्मनी, हुए सब वर्षों में बेकार। बची है तो एकदम नीरवता, और तनहाई का साथ।।