सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

दिसंबर, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

संतोष

संतोष तू कहाँ रहता है? कौन सा घर तेरा अपना है? कहाँ तेरा बसेरा है? मुझे तुझे पाना है. किस भावना में छिपा है? किस कार्य में है जकड़ा? किसकी व्यथा है सुनता ? किसने है तुझको पकड़ा? किस हर्दय का है वासी? बना है क्यूँ प्रवासी? मेरे हर्दय का तू आकर बन जा निवासी कितना है ढूढ़ा मैंने? हर कार्य हर सफलता में, बनता है तू सुरसा सा, हर छन हर पल में बन गया है तू बदल, और मई कहानियों में, छिपी बुढ़िया, जो सोचती है. झाड़ू से तुझको छूना, और तू निर्मोही, चला जाता है ऊपर, और ऊपर, और ऊपर .

पहचान खोजती हूँ.

उम्मीदों का कारवां खोजती  हूँ, राही हूँ सही राह खोजती हूँ, लहरों का किनारा न सही, डूबते को तिनके का सहारा खोजती हूँ. पथ है धुधला, राह मुश्किल , सूरज कि रौशनी न सही  दिए की रौशनी खोजती ही सही, मंजिल न सही अधर ही सही , अपने सपनो का जहाँ खोजती हूँ , थोडा सा डर , थोड़ी कशमकश, एक पल ख़ुशी,एक पल डर , दुविधा, आशा निराशा के बीच झूलती, अपने कदमो के निशान और, और अपनी पहचान खोजती हूँ.

लाइफ का सही फंडा

उगल दो जो मन में आया है, छुपाओ नहीं कुछ भी, क्योकि छुपाने से मन भड़कता है, दिल जलता है, इससे भले किसी का कुछ न बिगड़े, असर अपनी सेहत पे पड़ता है , एक गाल पर  थप्पड़ पड़े तो , दूसरा आगे मत करो , क्योकी चोट को अपने गाल पर लगना है. सहने कि भी एक सीमा होती है, जादा सहना भी मुर्खता है, जब हम ही नहीं होगे तो , हमारी नेकी का क्या अचार डालना है , पहले खुद तो बच ले , फिर ज़माने को देखना है ये है लाइफ का सही फंडा