सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

पीरियड के दौरान एक दिन की पेड लीव..........वॉओ या नो-नो!!!!!



मैकेनिकल इंजीनियर नमिता का मूड़ आज सुबह से ही उखड़ा था, ऑफिस में काम का अंबार और शरीर साथ नहीं दे रहा था। एक करके कामों को निपटाना और समय के साथ-साथ दर्द का बढ़ना, और उफ उसके बर्दाश्त के बाहर हो गया था। वह बॉस के केबिन में पहुंच गई, ’सर! आज मेरी तबियत ठीक नहीं है, मुझे हाफ डे चाहिए।’ यही कहानी नमिता की ही नहीं सभी कामकाजी महिलाओं की है। अपने मासिक धर्म के चार दिनों में सभी महिलाएं मूड स्विंग, बेचैनी असहनीय दर्द का शिकार रहती हैं। इन दिनों के दौरान भी उन पर घर और बाहर के कामों का दबाव रहता है। इस दौरान वे  असहनीय पीड़ा सहन करती हैं। यह असाधारण शक्ति केवल महिलाओं में ही होती है। और इस मुश्किल को कामकाजी महिलाओं के लिए आसान बनाया है, मुबई की कल्चर मशीन ने यह पहला कदम उठाकर इस बहस को जीतने की दिशा में एक नई पहल कर दी है।

काफी दिनों से इस बात को लेकर बहस चल रही है कि पीरियड के दौरान कामकाजी महिलाओं को पेड लीव मिलनी चाहिए या नहीं। कई वृंदा करात सहित कई समाज सेवक इस बात का झंडा बुलंद किए हुए हैं कि इन दिनों के दौरान महिलाओं के शरीर को आराम की आवश्यकता होती है। उनका शरीर कई तरह के हार्मोनल उतार-चढ़ावों से गुजरता है, ऐसे में पहले दिन का अवकाश उनके शरीर को आराम देगा और उत्पादकता को ही बढ़ाएगा। विश्व में आज लगभग दो तिहाई महिलाएं कामकाजी हैं, ऐसे में यह कदम एक बड़ा कदम साबित होगा।
मुंबई की इस कंपनी द्वारा हाल ही में जारी वीडियो में महिलाओं के उनके मासिक धर्म के पहले दिन के बारे में अनुभव पूंछे गए हैं, जिसके बाद उन्हें इस दौरान पहले दिन की छुट्टी की बात बताई गई है। इस दौरान सभी महिलाओं ने काफी खुशी मिश्रित आश्चर्य की  प्रतिक्रिया व्यक्त की है। इस बारे में मैंने अपनी कुछ कामकाजी दोस्तों से बात की और क्या थी उनकी प्रतिक्रिया आइए जानते हैं।
सुनने को मिलती हैं घिसी-पिटी बातें
अव्वल तो बताने में झिझक और अगर किसी को इसका एहसास हो जाए तो बस वही पुरानी बातें कि यह तो हर महीने की बात है। तुम अकेली ही नहीं हो, सभी महिलाएं इस दौर से गुजरती हैं। इसमें नया क्या है? दिल्ली के एक मंत्रालय में बतौर अनुवाद कार्य कर रही सुचित्रा लांबां के शब्दों में,‘‘ अक्सर महिलाओं को पुरुषों से कमजोर माना जाता है। कहा जाता है कि वे शारीरिक रूप से पुरुषों से कमजोर होती हैं। मेरी नजरों में महिलाओं में उनके मुकाबले कहीं अधिक शक्ति होती है। घर और बाहर में संतुलन बनाने के साथ ही वे मासिक धर्म के दिनों के दौरान भी जिस तरह अपने सभी कार्यों को पूरा करती हैं, यह उनकी पुरुषों से कहीं अधिक सक्षम होने का प्रमाण है। हां एक दिन की पेड लीव जरूर इस घिसी-पिटी विचारधारा को बदलने के लिए एक नया नजरिया साबित होगी।’’
सामान्य सी बात है
बचपन से ही भारतीय महिलाओं को अपने मासिक धर्म के बारें में सभी से छुपाकर रखने की आदत डाली जाती है। इसे एक रहस्य के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है। किसी को पता न लग जाए, इससे छुपने के लिए आज भी महिलाएं न जाने कितने जतन करती हैं। सेनेटरी नैपकिन जैसी आवश्यकता की वस्तुओं को छुपाना तो बहुत ही सामान्य बात है।
आधुनिक युग की कामकाजी महिलाएं अब इस सत्य को स्वीकार करने लगी हैं कि यह मासिक धर्म कोई समस्या नहीं है और न ही इसके बारे में इतनी गोपनीयता रखने की आवश्यकता है। महीनेे के उन चार दिनों की घबराहट-परेशानी, थकान और सबसे बड़ी बात दर्द, इन सबके साथ ही कामकाजी महिलाएं अपने ऑफिस के सारे कामकाज तो निबटाती ही हैं। परंतु इस कंपनी का यह कदम सभी महिलाओं के लिए एक साकारात्मक कदम साबित होगा।एक बीपीओ में काम करने वाली तनीशा मेहरोत्रा कहती हैं,‘‘मासिक धर्म प्रत्येक महिला के जीवन का एक अहम हिस्सा है। जब शरीर में कोई परेशानी है तो इसे स्वीकार करने में झिझक कैसी? ऐसे में अगर पहले दिन हमें इसके लिए छुट्टी मिलना एक सकारात्मक और अहम कदम है। ‘‘
हमें नहीं है जरूरत
इसके विपरीत कुछ महिलाओं के लिए यह कदम महिलाओं को कमजोर बताने वाली थ्योरी को ही सिद्ध करता है। उनके अनुसार इससे तो प्रमाणित हो जाएगा कि महिलाएं सच में कमजोेर होती हैं कि उन्हें इन दिनों के दौरान किसी पेड लीव की आवश्यकता है। एक मल्टीनेशनल कंपनी में मीडिया एक्सपर्ट सयाली नितिन के अनुसार, ‘‘हमें हमेशा से कमजोर माना जाता रहा है। अक्सर महिलाओं का करियर शादी के बाद हिचकोले खाने लगता है। ऐसे में यह लड़ाई कहीं भी उचित नहीं है। हमें कोई पेड लीव नहीं चाहिए। यह सामान्य प्रक्रिया है और हमें इससे निबटना आता है।’’

समान अधिकार तो समान कर्तव्य
‘‘शारीरिक क्षमता के अनुसार काम या छुट््िट्यों का बंटवारा करना भी हमारे साथ एक भेदभाव ही है।’’ कहना है स्कूल अध्यापिका रेखा मिश्र का । वे कहती हैं, वैसे भी हमें दोहरी जिम्मेदारियों को संभालने के साथ ही पुरानी विचारधारा से निबटना पड़ता है। ऐसे में यह बहस हो या पेड लीव का निर्णय सही नहीं है। हमें समानता का अधिकार चाहिए तो पहले खुद को मजबूत मानना होगा। ऐसे में इस बहस का कोई अर्थ ही नहीं है।

 
किसी की विचारधारा कुछ भी हो, परंतु इसका निर्णय तो केवल महिलाओें करना है कि उन्हें पेड लीव चाहिए या नहीं? अपने शरीर और अपनी क्षमताओं का निर्णय लेना उनका अधिकार है। पर इन बहस और बातों के बीच इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि महिलाओं में पुरुषों से कहीं कार्यक्षमता, लगन और कार्य के प्रति समर्पण होता है। उनके लिए अपना काम एक पैशन की तरह होता है और कितनी भी घरेलू और पारिवारिक दायित्वों के बीच भी वे इसे पूरा करने का दम-खम रखती हैं।

 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

जिंदगी तुझे तो मैं भूल ही गई थी

 तो आधी जिंदगी गुजर चुकी है, बाकी भी गुजर ही रही है,लगातार चलती ही जा रही है, पर अभी भी मन बचपन सा ही है, जो जिंदगी पीछे रह गई उसके खट्टे-मीठे पल, छोटी-छाेटी खुशियों की ही याद रह गई है। जो किसी समय लगता था कि बड़ी परेशानियां हैं, उन्हें याद करके बस अब हंसी ही आती है, कितनी बेवकूफ़ और पागल थी मैं कि थोड़ा सा कुछ हुआ और बिफर पड़ी, किसी की बात सुनती भी नहीं थी और खुद ही पहले बोलने लगती थी। किसी ने कुछ कहा नहीं कि मैने उसकी बात से भी बड़े-बड़े अंदाजे लगा लिए और लग गई अपना ही हवा महल बनाने। भले ही कोई कुछ और कहना चाहता हो पर समझना कुछ और, यही तो किशोरावस्था से युवावस्था के बीच की उम्र का असर होता है। बड़े-बड़े सपने, और हवा-हवाई बातें, अगर नही की तो बीस से पच्चीस के बीच की उम्र जी ही नहीं। इन्ही बातों से तो जिंदगी बनती है। आज वही बातें फिर से याद आ रही हैं और बड़े दिनों बाद समय निकालकर ब्लॉग पर आ गई, कभी किसी दोस्त ने कहा थी कि लिखना नहीं छोड़ना, मैं उसकी बात भूल ही गई थी, जिंदगी की आपा-धापी और बदलावों के थपेड़ों के साथ संतुलन बनाना आपको कहां से कहां लाकर खड़ा कर देता है। कोई बात नहीं बहुत द

प्यार बार बार होता है

कौन कहता है कि प्यार, सिर्फ एक बार होता है। ये तो इक एहसास है जो, बार-बार होता है। इसके लिए कोई सरहद कैसी, ये तो बेख्तियार होता है, कब कौन कैसे, भला लगने लगे, खुद अपना अख्तियार, कहां होता है? प्यार में शर्त बंधी हो जो, तो भला ये प्यार कहां होता है। शर्तो में बंधने वाले , बावफा-बेवफा में अंतर, कहां बस एक बार होता है, वफा करना या नहीं करना, प्यार बस बेहिसाब कर लेना, बेवफाई में ही हमारी, जान बस तुम निसार कर लेना।

मौत या मुक्ति

वह हवा में उड़ रहा था, नीचे भी पड़ा हुआ था. उसके चारो ओर नाते-रिश्तों का, जमावडा लगा हुआ था. पर वह था नितांत अकेला. घबराना जायज था सो वह भी खुद को रोक न सका. चीखा-चिल्लाया पर सब बेकार, किसी पर कोई असर नहीं था. पत्नी दहाड़े मार रो रही थी, पुत्रो में चलने की तैयारी के, खर्चे की चर्चा हो रही थी, आज वे अपने पिता पर खूब खर्च करके, पूरा प्यार लुटा देना चाह रहे थे . बीमारी में तंगी का बहाना करने और इलाज के खर्च से बचने के, सारे नखरे पुराने लग रहे थे . उन्हें जल्दी थी तो बस , पिता का शारीर ठिकाने लगाने की. ताकि उन्हें वसीयत पढने को मिले. किसको क्या मिला ये राज खुले. अंतिम यात्रा की तैयारी में गाजे बाजे का बंदोबस्त भी था. आखिर भरा-पूरा परिवार जो छोड़ा था. शमसान पर चिता जलाई गयी, उसे याद आया घी के कनस्टर उदेले गये, इसी एक चम्मच घी के लिये, बड़ी बहु ने क्या नहीं सुनाया था, उसे लगा मरकर वह धन्य हो गया, कुछ घंटों में निर्जीव शरीर खाक हुआ. अब सारे लोग पास की दुकान पर, टूट से पड़े एक साथ. समोसे-गुझिया चलने लगे. कुछ तो इंतजामों की करते थे बुराई, वहीँ कुछ ने तारीफों की झडी लगायी, अब उससे सहन नहीं हुआ , और