दिल के किसी कोने में दबी रह जाती है मन की आवाज। कई बार बोलना चाहो पर शब्द नहीं मिलते? कई बार हम खुद अपने किए से संतुष्ट नहीं होते हैं क्योंकि उसका असर हमारी भौतिक जिंदगी पर पड़ता है। इसके बावजूद अंतर्मन की आवाज कभी गलत नहीं होती है। यह कभी भी हमें गलत राह पर नहीं चलने देती है। तब खुद से सवाल करना पड़ता है-----------
नैराश्य के पर कही तो मुलाकात होगी
पुछूगी तब क्या सोंच थी तेरी ?
हरित उपवन में नहीं,झंकड़ में सही,
मिलाना तो तुझे है ही.
यही भाग्य का न्याय है की,
भटकता हुआ सा जीव बने तू.
संकल्प-विकल्प, आशा-निराशा,
के झंझावातों में झूलना,
ही तेरा प्रारब्ध है .
तुझे देखर मन मेरे,
हर कोई स्तब्ध है.
कि तू दिखता है हसता-हसाता,
हंसी का पात्र बनता हुआ .
पर किसी को नहीं दीखता,
खून कही से रिसता हुआ .
कौन समझेगा कि तू,
है बड़ा ही हठी,छोड़ पाना ,
ये हठ भी शायद तेरे बस में नहीं.
तू सोचता है जैसा,
उल्टा सोचते है सभी .
तुझे समझाना शायद,
मेरे बस में भी नहीं है .
कहाँ तक चलेगी तेरी हठधर्मिता ?
हर जगह पर मत खानी पड़ेगी.
समझ जा अभी, मन जा अभी
दुनिया के ढंग से सोचना,
शुरू कर दे तुंरत.
अन्यथा दुनिया में फैले कांटे,
तेरे परों को लहूलुहान कर देंगे.
तू रोयेगा , और चुप कराने वाला,
कही, कोई तो नहीं होगा .
क्या कहा ?
तू हर जगह सही है.
कहता है कि तुझे परवाह नहीं है.
चाहे कितनी भी कठिन डगर हो,
मंजिल मिले या अधर हो.
तू अपनी सोंच पर चलेगा.
क्यों ?
अच्छा ताकि कम से कम,
तुझे खुद तो आत्मसंतुष्टि मिल सके।
पर क्या होगा जब सभी तुझे,
अधर्मी निर्दयी कहेंगे?
उफ कैसा भाग्य चुना है?
खुद अपने पैरों पर,
मार ली है कुल्हाड़ी,
और उस पर तुर्रा यह,
हठ न छोड़ने की कसम खा डाली।
और बार-बार नैराश्य को देता है दावत,
चल मौत के बाद ही सही,
मेरे सच्चे मन तुझसे मिलना,
मुझे राहत देगा।
bahut acha likha hai.very good.
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