बेफ्रिकी के आलम में सोंचती हूं,
कि मैं क्या हूं?
रेशा, कतरा या धुंआ-धुआं हूं।
कोई नहीं किनारा वो नदी,
या बिना अंत का आसमां हूं।
धीरे-धीरे बढ़ता हुया समुद्र,
जो रंगता रहता है सबको,
अपने ही रंग में और,
बढ़ाता रहता है जीवन को।
इन सबसे तुलना अपनी,
करती हूं कभी-कभी,
अपनी हर क्षमता को आंकती हूं,
हर बात को परखती हूं,
पर कहीं नहीं पाती खुद को,
इनके एक कतरे के बराबर
नजर आता है खुद में तो,
बुराइयों का एक समुद्र,
गंदली सी एक नदी,
रात का काला अंधकार,
और दुनिया भर का पाप।
कि मैं क्या हूं?
रेशा, कतरा या धुंआ-धुआं हूं।
कोई नहीं किनारा वो नदी,
या बिना अंत का आसमां हूं।
धीरे-धीरे बढ़ता हुया समुद्र,
जो रंगता रहता है सबको,
अपने ही रंग में और,
बढ़ाता रहता है जीवन को।
इन सबसे तुलना अपनी,
करती हूं कभी-कभी,
अपनी हर क्षमता को आंकती हूं,
हर बात को परखती हूं,
पर कहीं नहीं पाती खुद को,
इनके एक कतरे के बराबर
नजर आता है खुद में तो,
बुराइयों का एक समुद्र,
गंदली सी एक नदी,
रात का काला अंधकार,
और दुनिया भर का पाप।
हकीकत में बेफिक्री के आलम में सोचा गया ही सच होता है...........बढ़िया लिखा"
जवाब देंहटाएंईश्वर की अनमोल रचना है मनुष्य, आपने सुना ही होगा ..बड़े भाग्य मानुस तन पावा,फिर कोई गंदली सी नदी और बुराईयों का समुद्र खुद को कैसे आंक सकता है...बिना अंत का आसमां बनने में ही भलाई है.
जवाब देंहटाएंgood shikha keep it up!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लिखा आपने...पसंद आई आपकी रचना.
जवाब देंहटाएं______________
पाखी की दुनिया में- 'जब अख़बार में हुई पाखी की चर्चा'