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आओ थोड़ा सा बदल जाएं


आज न जाने क्यों एक घटना याद आ गयी भले ही पुरानी सही पर याद करने को मन कर रहा है। हरियाणा का वेदपाल तो अदालत के आदेश पर अपनी पत्नी शिल्पी को लेने गया था । वहां जाकर उसे अपनी पत्नी के स्थान पर मिली मौत । उसके साथ गए पुलिस के जवान भी केवल अपनी जान बचा कर भागने में लगे रहे थे। एक ही गोत्र में विवाह या प्रेम विवाह में हत्या का यह कोई नया या इकलौता मसला नहीं है। हर रोज इस तरह के एक-दो मसले तो खबरों में छाए ही रहते हैं। परिवार या बिरादरी के सम्मान के नाम पर निर्दोष जिंदगियों को कुचला जाता है। इसमें सबसे बड़े दु:ख की बात तो यह है कि अधिकतर मामलों में अपने बच्चों पर जान छिड़कने वाले मां-बाप भी उनके खिलाफ खड़े हो जाते हैं। बच्चों की जान लेने में भी उन्हें जरा भी हिचक नहीं होती है।
संविधान ने भारतीय नागरिकों को किसी भी धर्म या जाति में विवाह करने का अधिकार दे रखा है। न्यायालय में इस तरह के विवाह करने के बाद भी प्रेमी जोड़े खुशहाल जिंदगी जीने की आस में भटकते रहते है। उन्हें न तो परिवार का सहयोग मिलता है और न ही समाज का। इस तरह के मामलों में पुलिस और न्यायालय तब कुछ नहीं कर सकते हैं जब तक कि समाज इस बात को न समझे कि एक प्रगतिशील देश में इस तरह के इस तरह की बातों का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। देश का विकास तभी संभव है जब हम छोटे-छोटे समूहों में बंटना छोड़कर केवल भारतीय होने की भावना को मन में रखेंगे।
संविधान हमें कितने भी अधिकार दे दे उनका पालन तभी हो सकेगा जब हम खुद जागरुक होंगे। एक समाज में सबसे पहले तो हिंदू, मुस्लिम, सिख इसाई का बंटवारा इसके बाद उनमें भी छोटे-छोटे समूह । जब हम इन सब छोटी बातों में ही लगे रहेंगे तो बाहर की दुनिया से बेखबर रहेंगे। ऐसे में हमारा हाल कुछ उसी तरह होगा जैसे मुगल काल के दौरान हुआ था। मुगल अपनी रंगीनियों, शानोशौकत और झूठ अभिमान में ही भूले रहे और चालाक अंग्रेज उन्हें बेवकूफ बनाते हुए पूरी सत्ता पर काबिज हो गए। आज फिर से भारत उसी डगर पर बढ़ रहा है। जरूरत है कि हम थोड़ा सा बदले, खुद को पहचाने कि हम क्या हैं? हमारी क्षमताएं क्या हैं? इसके स्थान पर हम अपनी झूठी शान में ही भूले रहते है। हजारों में कोई एक सुधार की बात करता है तो उसे पागल ठहराकर उसका मजाक उड़ाया जाता हैै। सामने भले ही तारीफ मिल जाए पर उसके करीबी भी पीठ पीछे उसे सनकी की पदवी से नवाजते हैं। इसका असर होता है कि अगर कोई कुछ करना भी चाहता है तो भी चुपचाप सबकुछ अपनी आंखों से देखता रहता और विरोध नहीं कर पाता है।
ऐसे में हमें थोड़ा सा बदलने की जरूरत है। हमें भटकाने और बहकाने वाले लोगों की बात पर ध्यान न देकर प्रगतिवादी सोंच अपनानी होगी। जरा सोंचे कि किसी की खुशियों को समाप्त कर देने से आपको क्या हासिल होगा। एक बार उनकी खुशी में शामिल होकर तो देखें आपकी जिंदगी भी खुशियों से भर जाएगी।
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टिप्पणियाँ

  1. अधिकतर बच्चों के झगडे बढाने में माँ बाप और परिवार का ही हाथ होता है ! कोई इस भड़कती आग को बुझाने का प्रयत्न नहीं करता सिर्फ हाथ सेकते हैं !

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  2. हम पोलिटीकली तो आजाद हो गये, विचार अभी भी गुलाम हैं. विचारोतेजक लेख.

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