चित्र-सांकेतिक, गूगल से साभार बहती नदियां बनी तुषार, धरातल ओढ़े श्वेत आवरण, अम्बर भी तुहिनमयी दिखता, प्रकृति का दृश्य विलक्षण। किसी ओर न कुछ भी दीखता, बस श्वेत-श्वेत और श्वेत, कई प्रकाशवर्षों की दूरी धरती से, तय करके विद्रोही का यान, उतरा इस हिमनिकेतन पर, दृश्य देख अचंभित था मन। चलते-चलते थकते थे पांव, दिखती नहीं दूर तलक छांव, धूप नहीं गलन यहां थी, हिम खंड संकलन यहां थे। मीलों दूरी पर जाकर के, हिमखंडों के ही भवन बने, धरती पर जैसे इग्लू हो, पर जरा भिन्न से थे वो। पूरी बस्ती थी यों दिखती, जैसे हो इक ग्राम बड़ा, आदि कहां और अंत कहां, समझ न कुछ भी आ रहा। नगर के भीतर इक अविराम, लगा था बहुत बड़ा बाजार, लो दिखते थे बड़े विचित्र, वस्तुएं भी लगती थी भिन्न। अजब भाषा अजब बोली, रहन-सहन परिधान थे भिन्न, श्वेत खाल पर रुई के फाहे, लंबे से चोगे से वस्त्र। आंखों की पुतलियां हरी, लम्बी पलके हर स्त्री की, त्वचा का रंग दिखे था यो, श्वेत रंग केसर मिला ज्यों। कुछ विचित्र पशु-पक्षी थे, दो पैरों पर ज्यों खड़े हुए, लम्बी गर्दन, नाखूनी पंजे, पर रस्सी से थे बंधे हुए।
कुछ कही सी, कुछ अनकही.................