बेफ्रिकी के आलम में सोंचती हूं, कि मैं क्या हूं? रेशा, कतरा या धुंआ-धुआं हूं। कोई नहीं किनारा वो नदी, या बिना अंत का आसमां हूं। धीरे-धीरे बढ़ता हुया समुद्र, जो रंगता रहता है सबको, अपने ही रंग में और, बढ़ाता रहता है जीवन को। इन सबसे तुलना अपनी, करती हूं कभी-कभी, अपनी हर क्षमता को आंकती हूं, हर बात को परखती हूं, पर कहीं नहीं पाती खुद को, इनके एक कतरे के बराबर नजर आता है खुद में तो, बुराइयों का एक समुद्र, गंदली सी एक नदी, रात का काला अंधकार, और दुनिया भर का पाप।
कुछ कही सी, कुछ अनकही.................