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सावन फिर लौट तो आ .........................

इतने dino बाद अचानक , फिर वो गुडिया याद आयी, जब हम सब लड़कियां , पहनकर हरे फीते और चूड़िया, लेकर गुड़ियों वाली प्लेट, जाते थे नहर किनारे , जहा ढेर सारे छोटे भाई, हाथों में लेकर छड़ी, सरकंडो कि बड़ी-बड़ी , कपडे कि गुडिया डालते ही , जुट पड़ते थे उन्हें कूटने में , और यह तमाशा करने के बाद , सबके हाथों में होते थे , हमारे दिए गेहूं और चने , जिनके लालच ने ही , उनसे इतनी मेहनत करवाई थी , उनका यह प्रदर्शन , संकेतमात्र होता था , कोई वास्तविकता नहीं थी , न ही कोए हिंसा का प्रदर्शन , पतंगों पर होती थी जोर -अजमाइश , और हम बच्चे छत पर, लिए हांथों में लंगड़ , बिना पेच लड़ाए ही , पतंगे काटने को तैयार रहते थे , एक पतंग पाना भी , हमे उल्लासित कर देता था , ढाब, मंझा और रंगीन पतंगे , बस इतनी ही हमारी सोच थी , अब वो दिन नहीं है , इन्सान खुद गुडिया बन गया , बच्चे भी बड़े हो गये , वे अब अल्हड नहीं रहे . उन्हें पीटने के लिए , कपडे कि नहीं, सजीव गुडिया चाहिए , वे खिलौनों से नहीं , जिन्दा लोगो से खेलते है , पतंगे खो गयी और , मासूमियत भी , अब तो यह शहर , जिन्दा मुर्दों से भर गया है . इस दौर में फिर वापस , वो